पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥26॥
पत्रम्-पत्ता; पुष्पम् पुष्प; फलम् फल; तोयम्-जल; यः-जो कोई; मे-मुझको; भक्त्या श्रद्धापूर्वक; प्रयच्छति-अर्पित करता है; तत्-वह; अहम्-मैं; भक्ति-उपन्नतम्-श्रद्धा भक्ति से अर्पित करना; अश्नामि स्वीकार करता हूँ। प्रयत-आत्मन:-शुद्व मानसिक चेतना के साथ।
BG 9.26: यदि कोई मुझे श्रद्धा भक्ति के साथ पत्र, पुष्प, फल या जल ही अर्पित करता है तब मैं प्रसन्नतापूर्वक अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक और शुद्ध मानसिक चेतना के साथ अर्पित वस्तु को स्वीकार करता हूँ।
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परम प्रभु की आराधना के लाभों को प्रतिष्ठित करने के पश्चात श्रीकृष्ण अब यह समझाते हैं कि किस प्रकार से इसका अनुपालन करना अत्यंत सरल है। देवताओं और पित्तरों की पूजा में उन्हें संतुष्ट करने हेतु कई विधियाँ निश्चित की गयी हैं जिनका अनिवार्य रूप से अनुपालन करना पड़ता है। लेकिन भगवान उनके भक्तों द्वारा प्रेमपूर्वक शुद्ध हृदय से अर्पित किए गए किसी भी पदार्थ को स्वीकार करते हैं यदि आपके पास भगवान को अर्पित करने के लिए केवल फल है तब उसे अर्पित करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। यदि फल उपलब्ध नहीं है तो उन्हें पुष्प अर्पित कर सकते हैं। यदि फूलों का मौसम नहीं है तब भगवान को प्रेमपूर्वक उपहार के रूप में पत्ता अर्पित करना ही पर्याप्त होता है। यदि पत्ते मिलने में कठिनाई हो तो जल जो कहीं भी उपल्ब्ध हो सकता है अर्पित किया जा सकता है किन्तु सुनिश्चित रूप से यह अर्पण श्रद्धा भक्ति युक्त होना चाहिए। इस श्लोक में 'भक्त्या' शब्द का प्रयोग पहली एवं दूसरी पंक्ति में किया गया है। भक्त की यह भक्ति ही भगवान को प्रसन्न करती है न कि अर्पित किए गये उपहार का मूल्य। इस अद्भुत कथन द्वारा श्रीकृष्ण भगवान के करुणामयी दिव्य स्वभाव को प्रकट कर रहे हैं। वे अर्पित की गयी भेंट के सांसारिक मूल्य को महत्व नहीं देते। इसके विपरीत वे हमारे प्रेम के साथ अर्पित भेंट का मूल्य सभी पदार्थों से अधिक आँकते है। इसलिए हरिभक्ति विलास में यह वर्णन किया गया है
तुलसी-दल-मात्रेण जलस्य चुलुकेन च।।
विकनिते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सलः।।
(हरिभक्ति विलास-11.261)
"यदि तुम भगवान को निश्छल प्रेम के साथ केवल तुलसी का पत्ता और इतना जल जिसे तुम अपनी हथेली पर रख सको, भेंट करते हो तब वे इसके बदले में स्वयं को तुम्हें सौंप देंगे क्योंकि वे प्रेम के बंधन में बँध जाते हैं।" यह कितना आश्चर्यजनक है कि अनन्त ब्रह्माण्डों के परम स्वामी जिनके यशस्वी गुण और विशेषताएँ अत्यंत अद्भुत और वर्णन से परे हैं और जिनके संकल्प मात्र से असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न होते हैं और पुनः नष्ट हो जाते हैं। वे अपने भक्तों द्वारा विनयपूर्वक सच्चे प्रेम के साथ अर्पित की गयी भेंटों को सहर्ष स्वीकार करते हैं। यहाँ प्रयुक्त 'प्रयतात्मनः' शब्द यह सूचित करता है-'मैं उन्ही की भेंट स्वीकार करता हूँ, जिनका हृदय शुद्ध है।" श्रीमद्भागवत में भी उपर्युक्त वर्णित श्लोक के समान वर्णन किया गया है। अपने महल में अपने प्रिय मित्र सुदामा के सूखे चावल खाते हुए श्रीकृष्ण ने इस प्रकार से कहा
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन ।।
(श्रीमद्भागवतम्-10.81.4)
"यदि कोई मुझे श्रद्धा भक्ति के साथ पत्र, पुष्प, फल या जल अर्पित करता है, मैं शुद्ध चेतना युक्त मेरे भक्त द्वारा प्रेम पूर्वक अर्पित किए पदार्थ को सहर्ष स्वीकार करता हूँ।"
भगवान जब पृथ्वी पर अवतार लेते हैं तब वे अपनी दिव्य लीलाओं में इन गुणों को प्रदर्शित करते हैं। महाभारत के युद्ध से पूर्व जब श्रीकृष्ण कौरवों और पाण्डवों में समझौता होने की संभावना का पता लगाने हस्तिनापुर गये तब दुष्ट दुर्योधन ने अहंकारपूर्वक श्रीकृष्ण को भोजन खिलाने के लिए विभिन्न प्रकार के 56 भोज तैयार करवाए। श्रीकृष्ण उसके आतिथ्य को ठुकराकर और वहाँ भोजन करने के स्थान पर विनीत विदुरानी की कुटिया में गये जहाँ पर वह अपने प्रिय भगवान की सेवा का अवसर पाने की अभिलाषा कर रही थी। विदुरानी श्रीकृष्ण को अपने घर में देखकर आनन्द से ओत-प्रोत हो गयी। जो कुछ भी उसने उन्हें अर्पित किया, वे केले थे किन्तु उसकी बुद्धि प्रेमभाव से इतनी स्तंभित हो गयी कि उसे इसका बोध नहीं रहा कि वह केले के फल को नीचे डाल रही थी और केले के छिलके श्रीकृष्ण के मुँह में डाल रही थी फिर भी उसकी भक्ति भावना को देखकर श्रीकृष्ण ने आनन्दपूर्वक केले के छिलकों को ऐसे खाया जैसे कि वे संसार का अति स्वादिष्ट भोजन हो।